गाय और दूसरे वन्य प्राणियों में एक अंतर यह रहा है कि गाय सभ्यता की प्रतीक रही है। गाय ने सदैव सभ्यता की ओर बढ़ने का प्रयास किया है और दूसरे वन्य प्राणियों को भी इसके लिए प्रेरित किया है। परंतु अधिकतर वन्य जीवों को यथापूर्व स्थिति में ये बदलाव स्वीकार नहीं रहा। गायों के सभ्यता की ओर इस कूच में जानवरों ने हमेशा अड़ंगा डाला है। सांप उनमें सबसे सक्षम और घातक रहा है। और सभी गायें भी ये भली भांति जानती थीं।
समय के साथ और अपने प्रयासों के उपरांत, अधिकतर गायों ने जंगल के बाहर अपना एक सभ्य संसार बना लिया। इसका नाम भी सभ्यपुर रखा। गाय प्रजाति के लिए ये प्रक्रिया पीड़ाजनक एवं भयावह थी। साँप उनपर निरंतर प्रहार कर उनको अपने विष से मारते रहते थे। उनकी संख्या और अनुपात मे भारी कमी आने लगी। सदियों के संघर्ष के बाद अब गाय प्रजाति का एक सभ्य संसार बन चुका था। परंतु जीवन वहन की कुछ चीजों के लिए गाय अभी भी जंगल पर निर्भर थी।
साँपों ने भी हार नहीं मानी थी। कभी जंगल में ही तो कभी जंगल से आकर गायों को विष से मारते रहते थे। गायों ने आपस में मिलकर निर्णय लिया कि प्रतिदिन उनमें से दो गायें सभ्यपुर का साँपों से बचाव एवं रखवाली करेंगी। पर सांप अक्सर आसानी से इन गायों को भी डस कर मार दिया करते थे।
जरूरत अविष्कार की जननी होती है। गाय प्रजाति ने इस आपदा से उबरने के लिए लाठी की खोज की। गायों ने लाठी को प्रशिक्षण दिया एवम् सभ्यपुर को साँपो से बचाने की जिम्मेदारी के साथ नियुक्त किया। लाठी प्रभावी साबित हुई। अब सभ्यपुर पर प्रहार करने वाले साँपों को लाठी आसानी से मार देती थी। लाठी द्वारा, हर सांप के वध के बाद मृत सांप के साथ सभ्यपुर में जुलूस निकलता और त्यौहार मनाया जाता था। गायें अब पहले से कहीं ज्यादा सुरक्षित थीं और अपना ध्यान सभ्यपुर में सभ्यता की बढ़ोत्तरी मे लगा रही थीं।
जीव समय और परिस्थितियों के साथ क्रमागत उन्नति करते हैं। सांप प्रजाति के साथ भी ऐसा ही हुआ। कुछ सांपो ने लाठी और गायों को भ्रमित करने के लिए एक ऐसी क्षमता प्राप्त कर ली जिसमें वे अपने शरीर से ठीक अपने जैसी दिखने वाली केंचुली (चमड़ी) उतार सकते थे। रंग और आकार में ये केंचुली बिल्कुल सांप के जैसी दिखती थी और किसी को भी भ्रमित कर सकती थी। केंचुली और असली सांप में भेद करना लगभग असंभव था।
अब ये कुछ सांप गायों को मारने आते और लाठी के सामने पड़ते ही केंचुली उतार कर नदारद हो जाते। लाठी केंचुली पर वार कर अनजाने में पहले की तरह आश्वस्त हो जाती। साँप फिर से गायों को मारने में सफल होने लगे। लाठी भी अचंभित थी और गाय समुदाय भी। लाठी से कुछ सवाल तो पूछे जाते पर वो निर्जीव केंचुली दिखाकर इस बात का सबूत देती कि उसने तो सांप को मार दिया है। और पहले की तरह सभ्यपुर त्यौहार मनाने लगता था।
समय के साथ समस्या प्रत्यक्ष होती जा रही थी। जैसा कि पहले कहा गया है, सांप और केंचुली में भेद करना लाठी के लिए भी उतना ही कठिन था जितना गायों के लिए। लाठी का कर्तव्य था साँपों को मारना। और लाठी के द्वारा मारे गए साँपो (या शायद केंचुली) की संख्या भी बढ़ रही थी। इस बात पर लाठियों को वाहवाही तो मिलती थी पर गायों और उनके साथ सभ्यपुर की सांप से सुरक्षा फिर भी सुनिश्चित नहीं हो रही थी। लाठी की ऊर्जा भी सीमित थी। चमड़ी पर की गयी हर चोट में लाठी की ऊर्जा जा रही थी और उसे कमजोर कर रही थी।
इस सब के बीच सभ्यपुर की सभ्यता का भविष्य खतरे में था। सभ्यता की चीख थी कि गाय समुदाय और लाठी जल्द ही सांप और चमड़ी का भेद समझें। और लाठी अपने यौवन और ऊर्जा का उपयोग सांप तक पहुँचने और उनपर बरसने में करे।
जैसा कि ऋषि डारविन ने कहा है, प्रकृति में योग्यतम ही उत्तरजीवित होता है। गाय समुदाय आदिकाल से योग्यतम सिद्ध हुआ है। सभ्यता भी इस बात को लेकर आशांवित है कि गाय समुदाय और लाठी प्रकृति की ये परीक्षा भी पास करेंगे।

उम्दा। आशा है इसी तरह और भी लेख पढ़ने को मिलेंगे।
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Rishi Darwin prakritik selection ke vishay me bol gye the. Samaj is maapdand ko har jagah hi istemaal kar rhi . Jai hoo
Umda lekh. Likhte rahiye
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उत्तम प्रवाहधारा के साथ सोचनीय लेख
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